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पिता की गोद से उतारा गया बच्चा तो पकड़ ली भगवान की गोद में बैठने की जिद, जानिए ध्रुव तारे की कहानी

महाभारत के वनपर्व में सबसे मशहूर प्रसंग है, यक्ष और युधिष्ठिर की बातचीत. इस बहुत दुर्लभ और ज्ञान-रहस्य से भरी बातचीत को यक्ष प्रश्न के नाम से जाना जाता है. कहानी कुछ ऐसी है कि वनवास के दौरान एक दिन पांडव भाइयों को प्यास लगी. ऐसे में सहदेव, जो कि सबसे छोटे भाई थे, वह पीने के पानी की तलाश में गए. कुछ दूरी पर एक तालाब दिखा. सहदेव जैसे ही पानी पीने के लिए झुके तुरंत किसी दिशा से आती आवाज ने उन्हें रोक दिया. हालांकि सबसे छोटे पांडव ने उस आवाज को अनसुना कर जैसे ही पानी पिया वह बेहोश होकर गिर पड़े. बारी-बारी से यही हाल नकुल, अर्जुन और भीम का हुआ.

इसके बाद बारी युधिष्ठिर की आई. युधिष्ठिर ने आवाज देने वाले को सामने आने के लिए कहा, तो वह यक्ष सामने आ गया. इसके बाद यक्ष ने युधिष्ठिर से जीवन-दर्शन, आत्मिक और आध्यात्मिक विषयों से जुड़े कई सवाल पूछे. 

मसलन... धरती से बड़ा कौन है? आसमान से भी ऊंचा कौन है? आत्मा क्या है? जीवन क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? भाग्य क्या है? सुख-दुख किसे कहते हैं? सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है और सबसे ऊंचा स्थान क्या है? ये सवाल कुछ वैसे ही हैं, जो नचिकेता ने यम से पूछे थे और कठोपनिषद में इस प्रसंग को जीवन के प्रति जिज्ञासा कहा गया है. 


वैदिक और पौराणिक इतिहास की कथाएं इस बात की गवाह हैं कि, जीवन को जानने की जिज्ञासा हर युग में, हर समय में बनी रही है. दरअसल, जीवन इतना अनिश्चित है कि इसे समझ पाना बहुत ही कठिन रहा है. समय-समय पर हुए ये सवाल-जवाब जैसे प्रसंग इस कठिनाई को थोड़ा आसान बनाते रहे हैं. नचिकेता की कहानी, जीवन को समझने की कोई पहली या आखिरी कहानी नहीं है. ठीक ऐसे ही एक बाल किरदार का जिक्र विष्णु पुराण में भी हुआ है. वह भी पांच वर्ष का अबोध बच्चा था, जिसे उसकी सतौली मां ने जब पिता की गोद से उतार दिया, तो उसके बालमन को गहरा धक्का लगा. अब वह उस स्थान को पाना चाहता था, जो पिता की गोद से भी ऊंचा और महान था, लेकिन ऐसा कौन सा स्थान है? यह सवाल एक बड़ी समस्या भी था और मानव जीवन के रहस्य और जिज्ञासा का एक और पन्ना भी था.


बालक ध्रुव की कहानी सतयुग की है. वह जिस वंश में जन्मा उसकी महानता को कुछ ऐसे समझा जा सकता है कि मनु और शतरूपा उसके दादा-दादी थे. मनु-शतरूपा को पौराणिक कथाओं में पहले दंपती होने का दर्जा मिला है. कहानी कहती है कि ब्रह्मा ने अपने दाईं ओर से मनु को रचा और बाईं ओर से शतरूपा की रचना की. मनु पुरुष था और शतरूपा स्त्री. दोनों का विवाह हुआ और मानव जीवन में विवाह संस्कार की विधि-विधान से शुरुआत हुई.



इन्हीं मनु-शतरूपा का छोटा बेटा था उत्तानपाद. समय के साथ उत्तानपाद चक्रवर्ती सम्राट हुआ और सुनीति-सुरुचि नाम की दो कन्याओं से विवाह किया. सुनीति बड़ी रानी थी, लेकिन सुरुचि के रूप पर मोहित राजा उसे अधिक प्रेम करते थे. एक दिन महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि एवं उसके पुत्र उत्तम के साथ राजसिंहासन पर बैठे थे. इसी दौरान पांच साल का छोटा सा बालक ध्रुव खेलते-खेलते राजसभा में पहुंच गया.


दुलार में ध्रुव भी अपने पिता की गोद में बैठ गया, लेकिन सुरुचि से ये सहन नहीं हुआ. उसने ध्रुव को राजा की गोद से उतारते हुए कहा कि, अगर महाराज की गोद में बैठने का अधिकार पाना है तो भगवान की तपस्या करके मेरी कोख से जन्म लेने का अधिकार पाओ. अबोध बालक ध्रुव यह बात समझ तो नहीं सका, लेकिन डांट पड़ने के कारण रो पड़ा और मां के पास पहुंच गया.


सुनीति ने उसकी पूरी बात सुनी और कहा, ‘बेटा! सच में मैं तो अभागिनी हूं. लेकिन, एक बात तो तुम्हारी मां ने ठीक ही कही है, अगर बैठना है तो भगवान नारायण की गोद में बैठने का अधिकार प्राप्त करो. मां ने ये बात तो यूं ही बालक को शांत करने के लिए कह दी थी, लेकिन यह बात ध्रुव के मन में घर कर गई. उसने निर्मल हृदय के साथ यह विश्वास कर लिया कि भगवान विष्णु सब कुछ संभव कर सकते हैं.


अब ध्रुव ने तपस्या का निश्चय कर लिया था. उसने मां से इसकी आज्ञा मांगी तो उन्होंने हंसकर टाल दिया, लेकिन वह नहीं जानती थी कि उनके अबोध बेटे ने मन ही मन कितना कठोर फैसला कर लिया है. इसी फैसले ने ध्रुव को इतनी हिम्मत दी कि वह पांच साल का अबोध बालक एक रात महल छोड़कर तपस्या की राह पर चल पड़ा.



ध्रुव को यह नहीं पता था कि कहां जाना है, लेकिन फिर भी वह दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे. आगे भयावह जंगल आया, लेकिन जिसने कठिन फैसला कर ही लिया है तो क्या घर और क्या जंगल. ध्रुव बिना डरे वन में चलते चले गए. उनका मन टटोलने के लिए भगवान ने देवर्षि नारद को भेजा.


नारद मुनि ने ध्रुव की पूरी बात सुनी और कहा, “बेटा, तुम अभी बहुत छोटे हो, इस उम्र में क्या मान अपमान? तुम प्रसन्न रहो और घर जाओ. खाओ-खेलो, आनंद लो. भगवान से मिलना कठिन होता है. देवर्षि की बातों के बावजूद, ध्रुव के निश्चय में कोई बदलाव नहीं हुआ. उसने अपनी मीठी बोली में कहा कि, मुझे तो भगवान को पाना ही है, आप उनका पता जानते हों तो दीजिए, नहीं तो मैं किसी और से पूछ लूंगा. बालक के निश्चय को देखकर नारद मुनि बहुत प्रभावित हुए और उसे अपना शिष्य बना. देवर्षि ने ध्रुव की पूरी आस्था को देखकर उन्हें भगवत प्राप्ति का मंत्र देने का फैसला किया.


ध्रुव पर नारद कृपा हुई और नारायण से मिलने का रास्ता मिला. देवर्षि ने उन्हें भगवान विष्णु का द्वादश अक्षरी मंत्र ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’की दीक्षा और इसी का जाप करते हुए तपस्या की सलाह दी. ध्रुव ने नारद मुनि की बात मानकर यमुना नदी के किनारे मधुवन में जाकर तपस्या शुरू कर दी. इस दौरान कई बार आंधी-तूफान आए. सर्दी और गर्मी का प्रभाव बढ़ा, लेकिन ध्रुव की तपस्या बंद नहीं हुई. पहले वह फल खाता था, फिर सिर्फ जल ही पीकर तपस्या करने लगा, फिर पत्ते खाकर रहने लगा और एक दिन तो तपस्या में उसने यह भी छोड़ दिया.


इसके बावजूद भी जब भगवान विष्णु दर्शन देने नहीं आए तब ध्रुव ने प्राणायम के जरिए सांस रोकने की ठान ली. अब भगवान् विष्णु से भी ध्रुव की तपस्या का कष्ट अधिक सहन नहीं हुआ और देवी लक्ष्मी की ममता भी विचलित हो उठी. नारायण तुरंत ही गरुड़ पर सवार होकर मधुवन पहुंचे और ध्रुव को दर्शन दिया.



उनकी तपस्या से खुश होकर भगवान ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और उन्हें अपनी गोद में बिठाया. उनकी गोद में बैठते ही ध्रुव ने अपने आसपास करोड़ों सूर्य-चंद्र और आकाशगंगाएं देखीं. वह घबरा गए तब भगवान ने कहा, यही तो सबसे ऊंचा स्थान है पुत्र. इतना कहकर भगवान ने ध्रुव के शीष पर अपना शंख छुआ दिया. शंख के स्पर्श करते ही ध्रुव को वह सारे ज्ञान मिल गए, जिसे बड़े-बड़े हठयोगी भी नहीं जान पाते हैं.


अब ध्रुव को कुछ नहीं चाहिए था. उसने कोई वरदान नहीं मांगा. उसकी निश्छल भक्ति देखकर भगवान इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे ध्रुवलोक का स्वामी बना दिया और नक्षत्रों में अटल रहने वाले तारे को उसका नाम दिया. ध्रुव तारा. आसमान में उत्तर दिशा में निकलने वाला यह तारा, दृढ़ता, अटल विश्वास और परिश्रम का प्रतीक है. खुद सप्तर्षि मंडल इसकी परिक्रमा लगाता है. आज भी जब किसी के दृढ़ निश्चय और अटल विश्वास की संज्ञा देनी होती है तो ध्रुव तारा ही याद आता है.


ध्रुव की यह कथा जब भागवत आदि में सुनाई जाती है तो इसके साथ ही एक नाम और सामने आता है. यह है पृश्निगर्भ. दरअसल पृश्निगर्भ को भगवान विष्णु का ही एक अवतार माना जाता है. इनके पिता का नाम सुतप और मां का नाम पृश्नि था. स्वयंभू मन्वन्तर में सुतप और पृश्नि ने घोर तपस्या कर भगवान विष्णु से उनके समान पुत्र पाने की इच्छा प्रकट की थी. तब भगवान ने इन्हें वर दिया कि वे तीन बार इनके पुत्र बनेंगे.


स्वयंभू मन्वन्तर में दोनों को एक पुत्र प्राप्त हुए और पृश्नि से जन्म लेने के कारण उनका नाम पृश्निगर्भ पड़ा. सुतप और पृश्नि ने दूसरा जन्म कश्यप और अदिति के रूप में पाया तब इन्हें वामन देव के रूप में संतान प्राप्ति हुई. द्वापरयुग में इन्होंने वसुदेव और देवकी के रूप में भगवान कृष्ण को संतान के रूप में पाया. कथा के अनुसार पृश्निगर्भ ने ही ध्रुवलोक का निर्माण किया था, जहां बाद में ध्रुव को स्थान मिला.


महाभारत में उल्लेख मिलता है कि पृ्श्निगर्भ श्रीकृष्ण का ही एक नाम है. असल में हर मन्वंतर में पौराणिक किरदारों की एक ही कथा अलग-अलग स्वरूपों में सामने आती हैं. हर घटना के पीछे, पहले घटी घटना उसका कारण बनकर सामने आती रही है. जैसे भगवान विष्णु जैसा ही पुत्र पाने की चाहत अलग-अलग समयों में अलग-अलग दंपतियों ने की थी. इनमें मनु-शतरूपा, कश्यप ऋषि और अदिति, अत्रि-अनुसुइया और प्रजापति सुतप-पृश्नि रहे हैं. अपने-अपने काल में इन सभी ने भगवान विष्णु की तपस्या कर उन्हें संतान रूप में मांगा था. इसलिए जब ध्रुव ने तपस्या की भगवान विष्णु ने उन्हें पृश्निगर्भ का बनाया ध्रुव लोक ही सौंप दिया था.


विष्णुपुराण में वर्णित ध्रुव की यह कथा बताती है कि इंसानी दिमाग अगर ठान ले तो वह क्या कुछ नहीं कर सकता. यह कथा सिर्फ भक्ति की प्रेरणा नहीं है, बल्कि जीवन को समझने की कसौटी भी है, जिसके खांचे में रखकर यह मापा जा सकता है कि नई पीढ़ी और भावी कर्णधार कितने खरे हैं.

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